Friday 14 December 2012

Jindagi Aur Bhukh / जिंदगी और भूख

कुछ लोग जिन्दा है, दुसरो के हाथो से रोटीओं को छीन कर। कुछ लोग जिन्दा है अपनों के हिस्से को बेचकर और कुछ सच में जिन्दा है अपने हिस्से का बांटकर। जिन्दा रहने और जिंदगी के बिच झूलता इंसान कितना कुछ कर जाता है जो हमेशा जरूरत के इर्दगिर्द परिक्रमा करता या तो सूरज होता है या चाँद, पर जो भी हो जिंदगी और भूख के बिच जलता सिर्फ तो इंसानियत या उम्मीदे है।

शंकर शाह

Monday 12 November 2012

Jindagi Jinda Rahe / जिंदगी जिन्दा रहे

कभी मिले हो एक ऐसे चेहरे से जो आइना हो खुद का। कभी मिलाये हो ऐसे नजर से जो देखता है तो तुम्हे पर कहीं उतर जाता है खुद में खूब गहराई तक। भगवान बस देना ताकत की अगर लैंपपोस्ट नहीं बन सका तो कोई बात नहीं पर जुगनू बन उम्मीद को जिन्दा रखु किसी झोपड़े का और जिन्दा मै भी रहूँ ताकि आत्मा और मेरे बिच, जिंदगी जिन्दा रहे।

(शंकर शाह) 

Thursday 8 November 2012

Mere Hisse Ka / मेरे हिस्से का

याद है की तुम कभी थी सुबह के ओश बनके मेरे जिंदगी के पत्तियों पे। सूरज इन्द्रधनुष बन एहसास कराता था, की कुछ रंग है मेरे जीवन में भी। वक़्त है की करवटे बदलता रहा और रात है की निहारता है तुम्हे अब चाँद में। अब उतरो हकीकत बनके मेरे प्यार छत पे और मिलो तुम की मेरे हिस्से का करवाचौथ अभी बाकि है।

शंकर शाह

Friday 2 November 2012

Khap / खाप

कोई उतरता है ख्वाब बनके रोज़ रात में...और कई कहते है, ख्वाब ख्वाब हिन् रहे तो अच्छा है...इच्छा है,कोई डाल दे जिन्दा इंसान मे जिंदगी और मेरे अधूरे बोल संगीत बन थिद्के किसी के होंठो पर...जिंदगी अब  मिल भी जाओ, वक़्त है की ठहरता हिन् नहीं है और "खाप" वाले है की प्रेम के चौपाल पे मंदिर बना रहे है.....

( शंकर शाह )

Saturday 20 October 2012

Khai / खाई

कौन मिला, कहा मिला, हम तो वही खड़े है...जहाँ से सफ़र की सुरुआत थी...अजीब उलझन है....कदमो के निशान सड़क पे है हिन् नहीं पर लगता है की थक गया हूँ....वो कौन सा सफ़र था या सफ़र का फैसला जो बाकि है मंजिल के लिए....मै हूँ.... हाँ सिर्फ मै हिन् तो हूँ...दूर दूर तक सिर्फ दिख रहा है तो जमीन और आसमान के बिच की खाई....

शंकर शाह 

Thursday 11 October 2012

दिल कह रहा है फिर मिलो आप....फिर नजरे देखें आपको और दिल इसबार आपसे से प्यार का इज़हार कर दे...!!!!

शंकर 

Monday 24 September 2012

आज मिलो तुम फिर पहली मुलाकात की तरह..एक बार फिर नजरो का खेल खेलु और दिल घायल हो जाये...


शंकर शाह 

Wednesday 5 September 2012

Guru / गुरु

"वक़्त" कभी माँ की तरह गोद में खेलाते बचपन को तो कभी गुरु की तरह सिखाते दुनिया...दोस्त बनकर कभी उचल कूद करलेते हुए तो कभी पापा बनकर कहते हुए लड़ो जीना है तो...कहते है न "गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागु पायें..बलिहारी गुरु आपनो गोविन्द दियो बताय"... ए वक़्त गुरु, मै एकलव्य और अर्जुन तो नहीं पर आप द्रोणाचार्य हो मेरे लिए...और आज के दिन आप को सत: सत: नमन: :)

(शंकर शाह)

Thursday 16 August 2012

Pagal / पागल

कुछ खास तो नहीं जो मै बोलता हूँ...कुछ खास भी तो नहीं जो मै सोचता हूँ...ऐसा कुछ भी तो खास नहीं है जो आपको यातना देता हो...फिर मुझे "पागल",  ये उपनाम क्यों?

शंकर शाह

Thursday 19 July 2012

Jhhutha Nind / झूठा नींद

कुछ आत्माओ के आवाज़ बढ़ रहे है मेरे आत्मा में सोये इंसान को जगाने के लिए...वो पविव्त्र आवाज़ है ऐसा नहीं कहता.. पर कुछ तो है, उस आवाज़ का स्पर्श झंझोर्ता है मेरे अन्दर के इन्सान को...एक गहरी नींद है जो सपनो में मुझे इंसान बनाये हुए है.. और मै जानता भी हूँ की मै नींद में हूँ...मै सोया हुआ हूँ, एक आलस है जो कहती है की तू कर्मवीर है..पर वो आवाज़ जो झ्न्झोर रही है जगाने के लिए ?...सपने और सच का द्वंध है.. उम्मीद है मै जग जाऊंगा इस से पहले की झूठा नींद हमेशा के लिए न सुला दे मुझे....

(शंकर शाह)

Friday 15 June 2012

Khamosh Sham / खामोश साम


बार बार, हर बार,
हर कोई ने ने मुझे
पढ़ने की कोशिस की
और मै खुली किताब
की तरह तुम्हारी नजरो
से दिमाग में उतरता रहा...

कुछ पन्ने मेरे कोड़े थे..
और वो तुम न जाने कब
मेरे कोड़े पन्नो में
शब्द बन उतर गई

कभी कभी इतिहास
गलिओं में उतर जाता हूँ मै
और विज्ञानं की तरह
दिल और तुम्हारे होने के बिच
रिस्तो पे प्रयोग करने लगता हूँ मै 

कभी कभी खामोश साम  
की तरह तुम्हे सुनना चाहता
हूँ और संगीत की तरह
समेटना चाहता हूँ 
तुम्हे अपने संग्रह में

याद का भूगोल जब तुम्हारी
मुस्कुराहट और हसीन मौसम
के बिच के दुरिओं को नापने
लगता है तो ऑंखें सावन भादो बन
बिछ जाता है तुम्हारे गलिओं में,

और याद आता है तुम्हारे
गलिओं से गुजरना,
जब भी गुजरा तुम्हारे गलिओं
से मेरे धधकन ने आवाज़ लगाये,
न जाने तुम कैसे सुन लेती
थी धडकनों को और
आ जाती थी खिड़की पे ..

तुम्हारे साथ होना एक नशा था
शायद प्रकृति भी उस 
नशे बहक जाता होगा ...
तुम्हारी हाथो से जमीन पे खिंची
लकीरे आज भी मेरे दिल में
शिलालेख की तरह अंकित है...

तुम्हे बोलना बहुत अच्छा लगता था
और मेरा भी जिद्द था सुनने का...
सुनने की जिद में सायद बहुत
कुछ रह गया कहने को...
आज जब यथार्त के ठोकरों से
जब अतीत के चप्पल घिसने लगे है
तब थके हुए काया में ग़ज़ल बनके
उतरने लगती हो तुम..

बहुत अच्छा लगता है घास को
बिछौना और यादो को तकिया बनाके
एक हद तक तुम्हे सुनना
और जागते हुए में कभी कभी सो जाना
तुमारी यादो की गोद में...

(शंकर शाह)

Thursday 15 March 2012

Aukat / औकात

कल हीं किसी ने मारा था धक्का मेरे आत्मा को...वक़्त के प्यार ने मुझे उड़ना सिखा दिया था उड़ना असमान में...और मै उड़ने लगा था बिन डोर पतंग की तरह..बागो में फूलो की जवानी भी कितनी अजीब होती है न...भूल जाते है जिस के लिए दीवाने है वो छनभंगुर है.. सुख और दुःख में भी इतना हीं फासला है और सायद हंसी और उदासी में भी....उड़ते हुए पतंग में डोर हो या न हो पर गुरुत्वाकर्षण उसकी औकात जानता है...हाँ सायद इसीलिए एक बचपन के खामोश दर्द ने मुझे मेरे औकात बता दिए...

(शंकर शाह) 

Wednesday 15 February 2012

SimaRekha / सीमारेखा

कुछ शब्दों को जब जोड़कर कविता बनी तो ख्याल आया, ये शब्द सिर्फ शब्द नहीं थे..जिंदगी के अनुभव थे..जिंदगी के सफ़र थे...ये वो शब्द थे जो अनकही थे...जो कहना चाहता था तुमसे, ज़माने से..पर कंकर की तरह दिल के शीपी में वो कैद हो कर रह गए..कुछ सीमाओ तक समेत सकता था उन्हें, और सीमाओं का भी सायद सीमा था जो सीमारेखा तोड़ कर वो बिखरपड़े कागज़ पर ..पढने वालो ने सिर्फ कला समझा...और मैंने तो हर बार अपने दिल को खोलने की कोशिस की, इस डर से की कही मेरे मौन मेरे लिए शूल न बना जाये...

(शंकर शाह)

Tuesday 31 January 2012

बुद्धिजीविता के होड में अपने दिल को नीलाम कर दिया..सोया तो था मै अपने घर में, जागा तो पाया किसी ने मुझे गुलाम कर दिया....
शंकर शाह 

Monday 30 January 2012

Anshan KabTak / अनसन कब तक

मुर्दों के शहर में कुछ घायल छटपटा रहे है जिन्दा रहने की कोशिश में....एक जद्दोजहद एक आखिरी कोशिस है जिन्दा रहने की...कोशिश, हाँ! कोशिश, जहाँ इंसानियत रोटी बन गया है और लालच भूख, वहां अनसन कब तक,

(शंकर शाह)

Saturday 28 January 2012

Parloukik / परलौकिक

एक आविष्कार था जो परलौकिक शब्दार्थ में सायद इंसान रहा होगा..या सायद मानव..भगवान का एक बेहद खुबसूरत आविष्कार ...इसीलिए सायद वो अन्तरिक्ष अनंत से निकलकर अपने आविष्कार के दिलो में बसने लगे..मैंने भी आविष्कार किया था अपने नींद एक सपने को और सपने से एक जिंदगी पर यथार्त का भूख हर आविष्कार को निगल गया..वो सपना था जिसका नियम सायद सच के परिधि पर चुम्बकतव आकर्षण न रखता हो पर मानव, इन्सान और उसके दिल में बसने वाले भगवान, उफ़ सवाल और जबाब न जाने कब तक पृथ्वी के दो धुरी की तरह दुरी बनाये रहेंगे ...

(शंकर शाह)

Saturday 21 January 2012

Generation Gap / जेनेरेसन गेप

वो जिंदगी भर दुनिआदारी के अनुभवों से रेत चुन ज्ञान का मोती बनाते रहे....और हम जेनेरेसन गेप कह के उनके अनुभवों को ठुकराते रहे....
 


(शंकर शाह)

Tuesday 17 January 2012

Sanskaro Ke Hath / संस्कारो के हाथ

बहुत कुछ मौत जैसा अटूट सत्य है लेकिन मै नकारता हूँ ...इसीलिए नहीं की मै खुद और खुद के दायरे मे बंधक हूँ...इसीलिए मेरे सच से बाण से किसी के झूठी भावनाओ के घर मै आग न लग जाये...सोचता हूँ ये कैसी भावना...जहा सोच के बंद कमरे में खुद के द्वारा फैसले और सही साबित किया जाता हो.. जहाँ सच को झूठ और झूठ को सच मानता हो .. दुर्भाग्य जन्मभूमि का है जहाँ  इतिहास के अव्सेशो के चीख को घोंटा जाता है और नया लिखा जाता है कुछ मस्तिक पटलो में एक नए ब्रिजरोपन की तरह..पेड़ हमने बोया पर काटने वाला हम नहीं होंगे..मेरा अन्दर आत्मा चीखता है और में संस्कारो के हाथ उसका आवाज़ घोंट डालता हूँ...तुम खुश रहो...

(शंकर शाह)