कुछ शब्दों को जब जोड़कर कविता बनी तो ख्याल आया, ये शब्द सिर्फ शब्द नहीं
थे..जिंदगी के अनुभव थे..जिंदगी के सफ़र थे...ये वो शब्द थे जो अनकही
थे...जो कहना चाहता था तुमसे, ज़माने से..पर कंकर की तरह दिल के शीपी में वो
कैद हो कर रह गए..कुछ सीमाओ तक समेत सकता था उन्हें, और सीमाओं का भी सायद
सीमा था जो सीमारेखा तोड़ कर वो बिखरपड़े कागज़ पर ..पढने वालो ने सिर्फ कला
समझा...और मैंने तो हर बार अपने दिल को खोलने की कोशिस की, इस डर से की
कही मेरे मौन मेरे लिए शूल न बना जाये...
(शंकर शाह)