सड़क पर दूर भीड़ लगी थी
एक जनसमूह का जैसे मेला लगा था
रात गहरी थी सूझ नहीं रहा था
पर लगा कुछ तो जरूर माजरा था
कौतहुलवस् मै भी भीड़ का हिस्सा
देखा तो एक लड़का लड़खड़ा रहा था
फिर पूछा, इस लड़के को देखने भीड़
देखा तो जनसैलाब मुस्कुरा रहा था
कुछ तुतलाहट वाली लब्ज में
कुछ इशारो मै वह भीड़ को कुछ समझा रहा था
मैंने सोचा होगा नसे मै धुत
इसीलिए शायद बडबडा रहा था
चेहरे पर क्षमा की बिनती
आंख से आंशू छलक रहा था
पर बंद लब था
शिथिल काया से कुछ समझा रहा था
कुछ समाज सुधारक थे चेहरे वहां
जिन्हें वो खामोश चीख से कुछ समझा रहा था
पर वो समाज सुधारक चेहरे
कार्यकर्ताओ के रूप में उसपे लात, घूंसे, थप्पर लगा रहा था
खड़े भीड़ का क्या, कोई सही,
कोई इस क्रिया को गलत बता रहा था
किसी किसी के लबो पे उफ़ था
पर सब बिना टिकेट के शो का मजा ले रहा था
मै एक सरीफ इज्जतदार नागरिक
मेरा रुकना नागवार था
मेरे मन ने गाली दी जनसमूह को
और मै वहां से निकल गया
रात बीती बात बीती के तर्ज पे
सुबह चाय की चुस्की लगा रहा था
ब्रेकिंग न्यूज़ देखा तो
"चैनल" समाज का चेहरा दिखा रहा था
भूखे मरता एक आदमी
समाज खड़ा तमाशा देख रहा था
हर चैनल पर एक हीं समाचार
इंसानियत, नेता कहा खो गया
चैनल बदला हर चैनल पर
एक सा हीं न्यूज़ आ रहा था
एंकरों को गौड़ से देखा तो ख्याल आया
ये सब तो वोही कार्यकर्ता है जो बीती रात बहुत प्यार जता रहा था..
(शंकर शाह)
यही हो रहा है हर जगह । समाज सेवा का अर्थ भी नहीं जानते ये । और सेवा के नाम पर मात्र क्रूरता हो रही है।
ReplyDeleteSukriya Zeal Ji....:)
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