Monday, 14 February 2011

Darpan Dikha Raha / दर्पण दिखा रहा

लम्हे यूँ भागते रहे जैसे उसके पर निकल आये हो...बचपन कब ढल के जवानी हुआ और जवानी धीरे धीरे बुढ़ापे की और...बंद दरवाजा करके बहुत बार सोचता हूँ बुढ़ापे की आहट मेरे दरवाजे पर न हो...अब तो घर के बुजुर्ग भी तो नहीं रहते मेरे साथ...फैसलों के फासले में जवानी बहुत बड़ा फासला बना चूका है...अब तरेरती आंखे बच्चो की दर्पण दिखा रहा है..और दीवाल में टंगे अपने ठहाके लगा रहे है..

(शंकर शाह)

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