कल हीं किसी ने मारा था धक्का मेरे आत्मा को...वक़्त के प्यार ने मुझे उड़ना
सिखा दिया था उड़ना असमान में...और मै उड़ने लगा था बिन डोर पतंग की
तरह..बागो में फूलो की जवानी भी कितनी अजीब होती है न...भूल जाते है जिस के
लिए दीवाने है वो छनभंगुर है.. सुख और दुःख में भी इतना हीं फासला है और
सायद हंसी और उदासी में भी....उड़ते हुए पतंग में डोर हो या न हो पर
गुरुत्वाकर्षण उसकी औकात जानता है...हाँ सायद इसीलिए एक बचपन के खामोश दर्द
ने मुझे मेरे औकात बता दिए...
(शंकर शाह)
No comments:
Post a Comment