Thursday, 26 August 2010

Bujdili Hin To / बुजदिली ही तो

रात की तन्हाई में जब भी असमान को ओढ़ता हूँ...अपना आवाज़ अपने को हिन् चीरने दौड़ता है...तारे टिमटिमाते हुए मुझे एहसास कराते है मुर्दों के शहर में तुम भी एक हो...और हवा पत्तियो को सहलाते हुए कहता है...तुझमे कुछ तो बाकि है..फिर भी में भीड़ का हिस्सा...आत्मा हर रोज़ सवाल करती और डर तैयार करता जबाब...क्या है..बुजदिली ही तो मेरा ताकत है..बहानो के किताब से बच्चो को ककहरा सिखा तो सकता हूँ...पर सच्चाई के शिलालेख को कैसे मिटाउन...

(शंकर शाह)    

1 comment:

  1. मुर्दों के शहर में तुम एक हो...........
    अच्छी कविता है ..... पर प्रस्तुति भी थोड़ी अच्छी करते... लाइन दर लाइन लिखते तो अच्छा था.

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