Sunday, 4 December 2011

DIARY / डायरी

खामोश होंठो ने बहुत बार तुमसे कुछ कहना चाहा..पर हर बार तुम्हारी झुकी निगाहों ने बंचित रखा उसे कुछ कहने से...खामोश तुम भी रह गई...खामोश में भी रह गया...अब जब तुम पलकों कैद से आजाद हो गई हो...तो यादें हर रोज धुन्दती है तुम्हे...कभी सरसों के भूल में तो कभी गुलाब के सुगंध में...तुम्हारा होने का एहसास अब मीठी यादें है और तुम्हारा न होना होंठो को तकलीफ देता है...बहुत कहना है जो बाकि रह गया था...सायद कभी मिलो तो दिखाऊ, तुम्हारी दी हुई गुलाब अब भी बात करता है और हररोज़ उतरता है कविता बनकर मेरे डायरी में....

(शंकर शाह)

Monday, 7 November 2011

Wo Kayar Nahi Tha / वो कायर नहीं था

एक लाश पड़ी थी चौराहे पे
कुछ मासूम बिलख रहे थे
मैंने समझना चाहा
क्यों एक नदी, समुन्द्र
आने से पहले भटक गया,
मैं जानना चाहा क्यों
क्यों एक शरीर,
आत्मा से जीत गया,

चेहरे पे भूख की लकीर थी,

आँखों में उफ़ अजब सा दर्द था
सायद आंशु की जगह खून टपके होंगे
पैरो में पड़ा चप्पल, सुना रहा था
कहानी उसके दौड़ की,
जो किसी मैदान में दौड़ने के
निशान जैसा न था,
सायद दौड़ रहा था पेंसन के लिए,
ताकि राशन के दो दाने मिटा दे
भूख बिलखते परिवार के,
उसके बिधवा बहु के,
बिलखते उसके बच्चो के,
चेहरे पे एक तेज था,
सायद उसे उम्मीद रहा होगा,
जीतेगा वो, कोई तो पिघलेगा,
और मिल जायेगा उसे पेंसन,
उम्मीद रहा होगा सायद भगवान
पे भी, हाँ हो सकता है,
ऊपर वाला भी कुछ,
लाचारी के रात में
एक अच्छा सुबह छुपा रखा होगा,
या चलती लाशो में  जान डाल देगा,

देख कर लगा वो कायर नहीं था

यूँ हिन् वो नहीं मरा होगा
पहले नोंचा गया होगा सरकारी 
कौवों से, फिर  बची हड्डियो को
बुद्धिजीवी कुत्तो ने नोचा होगा,

हर बलात्कार के बाद,

कुछ बची होगी जान उस शरीर में
गले की रेखा बता रही,
आखरी साँस उम्मीद से टुटा होगा
,

(शंकर शाह)






Monday, 24 October 2011

Happy Diwali / दिवाली मुबारक

आज सुबह के धुप में आने वाले कल के लिए हजारो दीपक जगमगा रहे है आँखों में...उम्मीद से रौशनी और आज को समर्पित हम कल के लिए पटाखे है...दिवाली के लिए हम राम तो नहीं जो लोटेंगे घर...हम एक सफ़र बनके निकलेंगे जो रामराज्य ला सके..एक प्रण और दृढ़ता के साथ दिवाली हम सब को मुबारक हो....

(शंकर शाह)

Saturday, 15 October 2011

Kayro Ke Basti / कायरो के बस्ती

कायरो के बस्ती
में एक भीड़ देखा
नोच रहे है गिद्धों की
तरह अपने आत्मा को
और विचार आइने में
खूबसूरती धुंध रहे है

बहुत कुछ है करना चाहिए

पर कुछ हिन् बस में है
की जो वो कर सकते है
जो की दुसरे की आंच पे
अपना रोटी सेंकना है

कौन कहता है यहाँ

राजनीति सिर्फ नेता करते है
इस गाँव के हर चेहरे पे
लोमरी मुखौटा लगा बैठा है
कायरता को बटुआ बना
पीछे के जेब में दबा रखा है

नोच रहे है खुद को

जानते है ये
पर बहानो के कवच से
खुद को बचाए रखा है

धुप में पैर सेंकते

हिन् नहीं ये बंधू
और कहते है आज
चांदनी में आग है


(शंकर शाह)

Tuesday, 4 October 2011

Nam Ankho Se / नम आँखों से

कुछ पल दिमाग के कैद से निकल के...फ़ैल जाते है आँखों के अंतरिक्ष में...कभी ये अन्तरिक्ष के आकाशगंगा से कैद हुए तारे है ...पर अब ये मस्तिक के किसी पेटी में कैद हो गए है...अब जब भी खोलता हूँ बंद पेटी और  देखता हूँ इन्हें..नम आँखों से एक मुस्कान होता है होंठो पर

(शंकर शाह) 

Saturday, 24 September 2011

Na Jane Kyo / न जाने क्यों ?

एक लाश तंगी थी
चौराहे के नीम से
रस्सी उसे समेत ,
रही थी खुद में
जैसे कृष्ण सुदामा
का मिलन हो रहा था,
न जाने क्यों
कृष्ण इतना इतना
दीवाना हो रहा था
न जाने क्यों

सत: आंखे अश्रुविहीन थे

और कुछ आंखे
क्यों हुआ सोच रहा था
हाँ ! सवाल तो था
इस बार पानी अच्छी हुई थी
सुखा का मार न पड़ा था 
कर्जे के बिज से, इस
बार
फसल अच्छा हुआ था,
कोई बीमारी भी तो न थी उसे
और सरकार के आँकरो से
वो गरीब भी तो न था,
क्योंकी पचास से ज्यादा तो
उसके अम्मा के दवा में जाता था,

हाँ बिटिया भी तो

व्याह
लायक हो रही थी
शायद सेल्समेन सा
दौड़ता दौड़ता थक गया था ,
नहीं! अभी कैसे थक
सकता था वो
अभी अभी हीं तो
उसके बच्चे का शहर  
के स्कूल में
दाखिला हुआ था,

कल सुना था मैंने उसे
अगले साल का फसल
कर्जे के आधे दामो में
बिका था,
सरकार ने तो !
लगाई थी दुकान
फीर न जाने क्यों
वो नेताजी के

भतीजे को फसल बेचा !

हाँ सवाल तो था
न जाने क्यों ?


(शंकर शाह)




 

Tuesday, 20 September 2011

TimTimate Tare / टिमटिमाते तारे

लडखडाते कदम से ख्वाहिसों के तितली कभी आंगन के उड़ा करती थी...अभिलाषा के पैर पंख लगा के उरते थे, नन्ही सी हथेली में इन्द्रधनुषी रंग को कैद करने...उचल कूद के साथ कभी कई सपने किसी आँखों के गर्भ में पलते थे.. टिमटिमाते तारे अंधियार सपनो में लालटेन होता था किसी का...में जागता हूँ अभी नींद से डरकर...जब से देखा है मेरे प्रतिरूप में, तितलिओं के पीछे भागते कदम से मेरे बच्चे का...

(शंकर शाह)

Friday, 16 September 2011

अन्ना आन्दोलन

अन्ना आन्दोलन के खिलाफ बोलने वालो से निवेदन: १. आप अगर ज्ञानी है तो, आपने समाज बदलाव में कितना योगदान दिया है?
२. अगर आपके पास विकल्प है आन्दोलन का तो, अभी तक कहा सो रहे थे?
३. अगर सो नहीं रहे थे और प्रयास कर रहे थे बदलाव का तो, फेसबुक और ब्लॉगर के गलियो से निकल कर पंचायत के चौबारे तक क्यों नहीं आये?
४, अगर व्यवशाय,नाम कमाने की कोशिस कर रहे तो, इतना याद रखिये जिंदगी जी रहे है.पर आपका जिंदगी आने वाली पीढ़ी पर बोझ और गाली की तरह होगी ?
हर सिक्के के दो पहलु होते है.जरूरी ये है वो सिक्का काम का हो

Wednesday, 7 September 2011

मौत के दहलीज पे जिन्दा है एक लाश..चीरहरित बेबसी.. अब कफ़न भी उसका बाज़ार में है..  

(आज के दिल्ली कोर्ट विष्फोट पर माँ भारती का दर्द कुछ ऐसा हीं होगा )


(शंकर शाह)

Thursday, 1 September 2011

Bahao Aur Thahrao / बहाव और ठहराव

भीग रहा हूँ पर बरसात से नहीं...आत्मा के बूंदों से ...दिमाग की छतरी बचने का कोसिस कर रहा है...आत्ममंथन का मेघ बहुत बलवान है...मै बचना चाहता हूँ...पर डरता हूँ बहाव और ठहराव के बिच में खो न जाऊ...मेरा अस्तित्व, मानवता और मेरा जीवन .. बरसात और छतरी के बिच में धमासान का मुखदर्शक है...

(शंकर शाह)

Friday, 26 August 2011

अभी वक़्त है अपनी सोती सोच में आत्मा को जीवित होने दो / Abhi Waqt Hai

कही आँशु पे खिलते राजनीती कमल.. तो कही मुर्दों के बलात्कार पे..हर हाल पे कुछ अपने रोटिओं के सेकते.. और बहुत है जो लकड़ी की तरह जल रहे...कुछ खामोश चेहरे कई बोलते बुतों में जान डालना चाहते है..क्रांति की स्याही से लिखी हर किताब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है.."में दिनों का नहीं दसको, सदियों का घुटता हुआ..काटा गया, लुटा हुआ दिल का शोर हूँ...हर बार खामोश आँहो को समेत कर ज्वाला बनता और हर बार, बार बार खुद को दोहराऊंगा..अभी वक़्त है अपनी सोती सोच में आत्मा को जीवित होने दो...
(शंकर शाह)

Monday, 22 August 2011

मिलता नहीं मौका बार बार विखर जाने का... बनके राख देश पर...इतिहास के वीर है वो जिनपे लिपटा कफ़न इन्कलाब का...

Monday, 11 July 2011

Gungunati Nahi Hai / गुनगुनाती नहीं है

बर्षो बाद आज गुनगुनाने का मन हुआ, मौसम के मिजाज के अनुसार...भीगना चाहा पहली बारिश के बूंदों से पर बीमार पड़ जाने का ख्याल आया, फिर बीमारी से घर बैठ जाने का फिर एक दिन का छुट्टी, मन न जाने एक ख्याल के सवाल से कितने हिसाब कर डाले ...और हिसाबो के गिनती में बारिश थम गई..बहुत कोशिश किया की बारिश के बूंदों के गुनगुननाहट में अपने सुर से एक संगीत गाऊं.. पर वो सुर वो संगीत नहीं आ पाया जो बचपन में गले से होते पैरो से झलक जाया करता था और अब बारिश नाचती , गुनगुनाती नहीं है...शायद मै बहुत आगे निकल आया हूँ जहा से बचपन के गलियारों बहुत संकरे होने लगे हैं....

शंकर शाह

Thursday, 12 May 2011

Atma Se Utar Kar / आत्मा से उतर कर

कई बार में आत्मा से उतर कर जंगल में गया..कमाल देखिये आत्मा से उतर कर जितनी बार सफ़र किया...मैंने जंगल के राजा के तरह विचरण किया...पर जब भी लोटा उस सफ़र से वो जिंदगी के किताब एक काला अक्षर के रूप में अंकित हो गए...जब भी यादों के पन्ने पलटता हूँ...एक दर्द भरा चुभन के अलावा कुछ नहीं मिलता..

(शंकर शाह) 

Friday, 6 May 2011

Mere galati Ke Paksh me / मेरे गलती के पक्ष में

मै कई बार गलतियाँ कर देता था बचपन में जो लाजिमी है हर बच्चे करते है...पर हर बार गलती के बाद महसूस होता था की गलत है पर दिमाग के कोने से एक जबाब तैयार हो जाता था मेरे गलती के पक्ष में....मै सोचता था ऐसा क्यों है...पर सिर्फ ये मेरे साथ नहीं था हर किसी के जिंदगी के वाक्या के साथ ये जुदा हुआ है मेरे दोस्तों के साथ भी ऐसा था...और गलतिओं का सिलसिला अपरोक्ष रूप में चलता रहा...लेकिन मजे की बात यह है की जिस गलती पे पापा का मार खाया आज तक उस गलती दोहरा नहीं पाया...किसी चीज को हृदय से स्वीकार करने के लिए जरूरी है उस चीज के प्रति श्रधा और उसके विप्ररित न जाने का डर... 

(शंकर शाह) 

Saturday, 30 April 2011

जैसे किसी भी जन्म का प्रमाणपत्र मरण उसी तरह हमारे पतन के पीछे हमारा अज्ञानरूपी ज्ञान छुपा हुआ है...हम बुद्धिजीविता के ढोंग में खुद के लालच को दुसरे पे थोपते है...एक नम्र निवेदन " अगर आप ज्ञानी है तो ज्ञान का सद्य्प्योग उपयोग कीजिये...आजीवन ज्ञान को प्राप्त करना और ज्ञान को बांटना दो आदमियो का काम है १. शीक्क्षक  २. बेकार

(शंकर शाह)

Saturday, 23 April 2011

Bazaar / बाज़ार


बाज़ार में मेरा भी एक दुकान था...बोली भी लग रहे थे और में बेचने के लिए मैंने विचारो को रख दिया...बाज़ार है!भावनाओ का वहां क्या जरूरत...जैसा खरीरदार वैसा विचार...पर कुछ ऐसे मौके आये जब खरीददार के जगह पे विक्रेता मिले..जो जीवन के भूख में कामधेनु थे...मैंने सोचा कुछ लेलु उनसे ताकि संस्कार के फेहरे में कुछ ताजगी भर पाउ...पर जितनी बार दिल के जेब खोला, देखा तो खाली था!!!

(शंकर शाह)

Friday, 15 April 2011

बहुत दिनों के बाद सोचा चलो आज देखे दिन से रात का मिलन...जो कभी हमारे दिनचर्या का हिस्सा हुआ करता था...साथियों के साथ खेल का एक हिस्सा हुआ करता था वो अब परीक्षा के पल की तरह थकाने लगा है...जाने और नजाने कई फसलो को तय करने के बाद महसूस होता है की...लौटना चाहिए नीले चादर के निचे घासों से छुपनछुपाई खेलने... उन हंसो को अपना बनाने का फिर से मन करता है जो थके हारे घर लौटते वक़्त हमसे बतिया लिया करते थे...पंडित जी के चेहरे बदल गए है पर अब भी वहां बच्चो मेला लग जाता है...सोचता हूँ फिर से हम उस मेले में सामिल हो ले...

(शंकर शाह)  

Monday, 28 March 2011

Sapno Ki Pari / सपनो की परी

चंदामामा के थपेड़ो के साथ हवाओ में घुलने लगता है एक खुसबू...घर की खिड़कीयां बताने लगाती है आहट किसी के होने का...किसी की खामोश हंसी दिल के धडकनों में लाल गुलाब बनने लगता है...और रात ओढा जाता है एक चादर खामोसी से मीठे स्वप्नों का..सपनो की परी हररोज चली आती है एक नए रूप में ...पर हकीकत का दिन हर बार मायुश कर देता है...सुना है परियां होती है...पर सायद कलियुग की वजह से आती नहीं जमीन पर ....


(शंकर शाह)

Wednesday, 23 March 2011

Sochta Hoon Wo Pal Kaisa Raha Hoga / सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा

सोचता हूँ वो पल भी कैसा रहा होगा
जब औरत बच्चे, बूढ़े, जवान
हर एक ने दिल का सुना होगा 

और जुल्म नहीं का विचार 
जब हतौड़ा बना होगा !!
 

सोचता हूँ वो पल भी कैसा होगा
जब मै, तुम, संप्रदाय विभिन्ताओ 

का आवाज होगा जब एक सुर 
सबका और एक तान रहा होगा !!
 

सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा 
जीने का चाहत रही होगी 
मर जाने का डर रहा होगा 
जब अपने से ऊपर देश रहा होगा !!

सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा
भूख की कहा फिकर थी उनको  
न उनको किसी से बिछारने का डर रहा होगा 
मौत हीं नींद थी फिर कहा वो लड़ने डरा होगा !!

सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा
चिताओं के सेज पे जब अपनों का
आकार जला होगा, फिर भी न रोक सका
कदम वो अभिमान कैसा रहा होगा

सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा !!
सोचता हूँ मेरे लालसा भरी बहकते 
कदम देख, उन सब वीर वीरांगनाओं का 
कितना दिल जला होगा, जब मिलेंगे मुझसे 
मेरे पास उनको कहने को क्या होगा, 
सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा  

शहीद दिवस पे भगत सिंह, राजगुरु और शहीद सुखदेव को कोटि कोटि नमन!!!!!

(शंकर शाह) 
 

Saturday, 19 March 2011

दुनियादारी के साथ भागते कदम और छुट रहे अपनों से हम...हम से मै हो रहा अपने आप के भीतर जरूरी हो जाता है एक और होलिका दहन की....और दहन के बाद जश्न...मै को जलाकर कोशिस करूँगा की बुत बन रहे "हम" को फिर से अपने अन्दर ला सकू....ताकि धरती सी हाथ मै चाँद का कटोरा इन्द्रधनुषी रंग मुझपे बिखेर सके.. ये बिना सोचे हुए की सामने वाले की रंग न बदल जाये....
"होली के शुभअवसर पर आप सभी को परिवार सहित ढेरो सुभकामनाये"....
 
 
 
(शंकर शाह)

Friday, 4 March 2011

Mere Yaado Ko Kaise Mitaogi / मेरे यादो को कैसे मिटाओगी

चाहे जला दो तस्वीर मेरा, चाहे मेरा ख़त जला दो,
पर ये तो बताओ, मेरे यादो को कैसे मिटाओगी,
तुम्हारे दिल के किसी कोने में मेरा भी एक घर है 
अब बताओ मेरी जान उसे कैसे जलाओगी.....

(शंकर शाह) 

Tuesday, 1 March 2011

Mai Kahan Tak Jinda Hoon / मै कहा तक जिन्दा हूँ

कल से आज के बिच में बहुत कुछ बदलते देखा...ज़माने बदलने के साथ हम बदल रहे है या हमारे बदलने जमाना बदल रहा है? बदलाव है और क्यों मालूम है, पर सोच पर एक रंगीन पट्टी है बहाने का..कल जहाँ मंदिरों में भगवान बसते थे अब मंदिरों के खुले प्रांगन से निकल दिल के संकरा गलियो में बसने लगे है...और पूर्वजो का देवघर छोटे हो रहे कुतुम्बन सा, बक्से में बंद होने लगे है..मेरे लिए मायने यह है की ,मै कहा तक जिन्दा हूँ जिदगी के साथ बदलते समय और इंसान के बिच में ..महाशिवरात्रि के अवसर पर सभी दोस्तों को शुभकामनाये
(
शंकर शाह)

Wednesday, 23 February 2011

Galib Khyal Jo Achha hai / " ग़ालिब " ख्याल जो अच्छा है

कई बार सवाल होता है ..जो जी रहे है क्या येही जिंदगी है ..सवाल खुद से बहुत सारे सवाल करता रहता है ..और जबाब छुपान छुपाई खेलता है भूलभुलैया रूपी जबाब मे..जो भी हो हम भी एक मोड़ पर फैसला कर लेते है ..जो पल है जिओ...आखिर खुद को धोखा देने का "ग़ालिब"  ख्याल जो अच्छा है..

Monday, 14 February 2011

Darpan Dikha Raha / दर्पण दिखा रहा

लम्हे यूँ भागते रहे जैसे उसके पर निकल आये हो...बचपन कब ढल के जवानी हुआ और जवानी धीरे धीरे बुढ़ापे की और...बंद दरवाजा करके बहुत बार सोचता हूँ बुढ़ापे की आहट मेरे दरवाजे पर न हो...अब तो घर के बुजुर्ग भी तो नहीं रहते मेरे साथ...फैसलों के फासले में जवानी बहुत बड़ा फासला बना चूका है...अब तरेरती आंखे बच्चो की दर्पण दिखा रहा है..और दीवाल में टंगे अपने ठहाके लगा रहे है..

(शंकर शाह)

Saturday, 29 January 2011

Maa Bharti / माँ भारती

सपनो के रंगीनिओं में 
अब कोई अप्सरा नहीं आती...
रात अब बचैनिओं के
आंचल में सर रख कर,
करवटे बदलने लगा है...

दिन के भागम भाग से थक कर भी
अब नींद नहीं आती...
दिल के अब कई विभाग हो गए है...
एक कहता है वो कर डालो जो चाहते हो..
एक कहता है नहीं मत करो कुछ...
जिओ जैसे दुनिया चल रहा है...
वरना घर के लोग हीं 
तुम्हे राजनीती का हिस्सा बना देंगे...

एक हिस्सा अब भी कह रहा है
निकल घर से रोंप दे एक पौधा क्रांति का,
जुगनू किसी के घर को रौशन नहीं करते ,
बन जा विष्फोट वतन का,

पर एक हिस्सा कह रहा है
सो जा नींद आ जाएगी 
तुझे क्या , क्यों में झमेले में पड़ता है...
दोस्तों दुआ करो नींद आ 
जाये मुझे, आपकी तरह...
कहीं सुना न सोने वाला पागल हो जाता है!! 

(शंकर शाह)

Friday, 28 January 2011

Bhulti Yado ka Tara / भूलती यादो का तारा


चलते हुए सफ़र में देख रहा हूँ....बाप बेटे का दोस्त तो बन जा रहा है....पर वहीँ बेटा  बाप के वजूद के लिए तरस जा रहा है.... देखे तो बेटे के दोस्त तो बहुत है पर बेटे को कही खो न इस दर हम बाप बनने का फ़र्ज़ भूलते जा रहे है....बुद्धिजीवीता के शिखर पर पहुँच कर ऐसा नहीं लगता की दसको के फासले को हमने सदिओं के दुरिओं में ढाल दिया है जहा बाबूजी के सकल में अब परदादा नज़र आ रहे है या एक स्वप्न जो भूलती यादो का तारा बन गया है ...



(शंकर शाह)

Monday, 24 January 2011

कौन कहता है अल्गावपंथी, उग्रवादी कश्मीर को हिंदुस्तान से अलग नहीं कर सकते....अभी के हालात साफ जाहिर करते है वो कामयाब हुए...आंख बंद सबकुछ देखने का दावा करने वाले बुद्धिजीवी भारतीओं...इतना भी न उदार बन जाओ आपका अपना बेटा आपको बाप कहने पर सर्मिन्दिगी महसूस करे... 

Tuesday, 11 January 2011

Mere Hisse Ka / मेरे हिस्से का

सोचता हूँ क्या करूं ऐसा जो देश के नाम हो जाये..फिर सोचता हूँ धरना, प्रदर्शन, विरोध अब तो नेताओ और उनके चमचो काम रह गया...मै ऐसा क्या करू जो देश के काम आ जाये...विचार के ढृढ़ता से सोचा क्यों न उपवास हो जाये...सायद मेरे हिस्से का दो रोटी महंगाई कम कर जाये.....
(शंकर शाह)