मुझे एक आदत रही.. खुद से बात करने की...में चाँद तारो ग्रहों के आविष्कार में उलझा नहीं...उलझा तो सोच के सोच का आविष्कार में...बहुत कुछ मिले ..नए तजुरबो से मिलता रहा..पर फायदा कुछ नहीं उन सब आविष्कारो में और आविष्कारो की तरह दो पहलु निकले...सुलझाता तरह और उलझता रहा....धातुओ में रसायन का मिश्रण करके एक नया आविष्कार तो हो सकता है..पर दिमाग के परखनली में कौन सा रसायन डाले जो क्रोध, लोभ, मोह को समुचित विनाश कर सके...
(शंकर शाह)
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