Sunday 4 December 2011

DIARY / डायरी

खामोश होंठो ने बहुत बार तुमसे कुछ कहना चाहा..पर हर बार तुम्हारी झुकी निगाहों ने बंचित रखा उसे कुछ कहने से...खामोश तुम भी रह गई...खामोश में भी रह गया...अब जब तुम पलकों कैद से आजाद हो गई हो...तो यादें हर रोज धुन्दती है तुम्हे...कभी सरसों के भूल में तो कभी गुलाब के सुगंध में...तुम्हारा होने का एहसास अब मीठी यादें है और तुम्हारा न होना होंठो को तकलीफ देता है...बहुत कहना है जो बाकि रह गया था...सायद कभी मिलो तो दिखाऊ, तुम्हारी दी हुई गुलाब अब भी बात करता है और हररोज़ उतरता है कविता बनकर मेरे डायरी में....

(शंकर शाह)