सुना
है टेलीपेथी से कि तुम्हारी मन कि नजरे भी टकटकी लगाये रहती है दरवाजे
पे..... कमाल है, मेरे मन कि नजरे भी जुगनू बन के उडते रहते है तुम्हारे
करीब … अब निकलो भी घर से बिना आहट के कि प्यार के नजर में ज्वार भाटा है.…
मै फिर आउंगा, गिरे पत्ते और ओश कि बूंदो कि तरह, कभी किसी के चूल्हे में जलकर आ जाउंगा काम, कभी मिल जाउंगा जमीन में और खाद के साथ मिलकर फ़ोटो सिंथेसिस प्रक्रिया में खुद को पाउँगा । `मै आउंगा, रहूँगा विकल्प बनके मतलबी रिस्तो के बिच और उसको और सींचूंगा अपने होने से ताकि तुम्हारा मतलब जिन्दा रहे और उसके बिच मै ।
शंकर शाह
Monday 18 November 2013
मुझे किसी दायरे में ना बांध ये मेरे दोस्त। मै भी मिज़ाजे मौसम हूँ क्या पता कब बदल जाऊं।
शंकर शाह
Friday 8 November 2013
कमाल कि आविष्कार हो कुदरत का ....मुस्कुराती तुम हो और दिन हमारा निखर जाता है !!!!↚ शंकर शाह
कभी
पुराने खतों को खोल कर मुस्कुराई तो होगी ... शब्द नहीं मिले होंगे उन खतों
में ....ना जाने क्या था, खुद उतर जाते थे पन्नो पर उछलते कूदते बुद्धे की तरह
... खोलके देखो पुराने खतों को जब रोने का दिल करे किसी कारन, सच मानो
तुम्हारे आँशु मुस्कराहट बन थिरक जायेंगे तुम्हारे होंठो पर ...छोड़ो न वो
तो कल की बातें थी !!!! पर सच है की हंसने का वजह भी वही कल है…
मै डरता हूँ, इंसान के खाल में, मेरा मौजूदगी क्या है, एक सवाल है ....
मुझे सिकायत नहीं लोगो से या भीड़ से ..... मेले का क्या, चींटियो के भी तो
मेले है लगते है .... पता नहीं लोगो की ऑंखें सावन भादो किसी के प्यार में
हीं क्यों होती है ... मेरे हिस्से में, ज्वार-भाटा भावनाओ का सही नहीं
....कितना अच्छा होता न अगर मेरा दिमाग RAM होता जीवनचक्र का हार्डडिस्क
नहीं ...
तुम्हारे नजरो से चुराकर रंग, मैंने रंग लिए है मैंने चेहरे अपने ….देखो! ये धोखा नहीं है, ये तो रंग है बदलते दुनिया में, मैंने सिर्फ चेहरे हिन् रंगे है, तुम्हारे मनचाहे रंगों से… न जाने कब तक, ये समझौते की जिंदगी और मुखौटे की आड़ में एक तन्हाइ....न जाने कब तक!
मै
सवालो के घेरे
में कैद हो के रह गया हूँ ....जब तक वह एक सवाल का जबाब खोजता हूँ तब तक उस
सवाल के मायने
बदल गए होते है.."सवाल" सवाल अगर पथ है तो जबाब भूल भुलैया..जब सब बाधाओ
को पार कर मै पहुँच जाता हूँ जवाब के करीब तो सवाल फीर से के सवाल कर बैठता
है...जानता नहीं ये सिलसिला कबतक चलता रहेगा पर सवाल जबाब नामक बिल्लीओं
के बिच में जिंदगी बन्दर बन के बैठा है…जरूरते लोगो की, मुझे उनके बिच,
मेरे जिंदगी को कन्धा दे रखा है वरना बिल्लियाँ लडती नहीं और बन्दर महान नहीं होता ।
एक रहश्यमयी दुनिया है, जहाँ कुछ दिनों से हर रोज़ पहुच जाता हूँ, कोई है जो
मिलता है अब हररोज़ मुझे, वो मेरे खामोश कविता की कल्पना नहीं है, कुछ है
तो है उसमे, जो मै सिर्फ सुनता हूँ उसे जब वो बोलती है, अच्छा लग रहा है अब
मेरे शब्द कागज़ पे सिर्फ उतरते नहीं बतियाते भी है और बिखरते है रंग बनके,
जैसे इन्द्रधनुषी सतरंग जो अब ओझल होते नहीं मेरे आँखों से,
रात भर सर्द हवाओं में तुम्हे ओढ़े रहा। आंख कैमरा बन कैद करता रहा तुम्हे,
चाँद बनकर तुम भी तो इठला रही थी। अंगुलियों ने नजाने कितने गीत लिख डाले आसमान को लैटरपैड बना। सारी रात तुम गुनगुनाती रही और महकती रही सांसो
में। एक नशा सा है तुम्हे देखना हथेलियों बिच और गले लगा लेना तुम्हारे
ख्यालों को। सुबह पक्षिओ के गीत और पत्तियों पे चमकते ओश की बुँदे गवाह है
मेरे हसीं रात का। सुबह अभी भी नशे में है और में भी, फिर रात की इंतज़ार में।
शंकर शाह
Thursday 21 February 2013
तुमने जो देखा तो लगा जैसे दिल फिर से जीने लगा, धधकने भी जीती है जिंदगी
होती है एहसास तेरे हर आहट पर, मुस्कुरा दो फिर से अब रातो मे करवटे बदलने
का मजा हिन् कुछ और है!!!!!!
थका, हारा हुआ एक पथिक हूँ। दसको से अपने अन्दर खुद को खोज रहा एक असफल प्रयासकर्ता। एक सफ़र है अंतहीन सफ़र, कभी लगता है मेरा मंजिल मिल गया और कभी
सफ़र दिशाहीन। थका हुआ शरीर चल रहा है जैसे की एक आम आदमी । खुद के दौड़ से परे, जब पहियों को देखता हूँ तो बस इतना
ख्याल आता है, सायद इसे बर्तन बनाने के लिए बनाया गया होगा पर जरूरते गाड़ी बन
गई।
नया साल नया कैलेंडर और नयी तारीखें। प्रकिती और प्राकृतिक संरचना, बदलाव
के पहिओं पे टहलता हुआ बहुत आगे निकल आया है एक बेहतर और बेहतर बदलाव के
साथ। वहीँ हम चिपके हुए है एक झूठी बोझ के साथ संस्कारी बोड़े के साथ, ये
प्रमाण है हमारे आदिम होने का। जहाँ बदलाव प्राकृतिक है वही हम बदलाव के
बिच ग्लोबल वार्मिंग। एक उम्मीद कैलेंडर के बदलते पन्नो के साथ की हम
संकीर्ण संस्कारी पन्नो को उलट के एक नया पन्ना जोड़े ताकि आने वाली सदियाँ
गाली देने के बजाय वो पन्ने पलते और लिखदे नया कुछ।