Friday 15 June 2012

Khamosh Sham / खामोश साम


बार बार, हर बार,
हर कोई ने ने मुझे
पढ़ने की कोशिस की
और मै खुली किताब
की तरह तुम्हारी नजरो
से दिमाग में उतरता रहा...

कुछ पन्ने मेरे कोड़े थे..
और वो तुम न जाने कब
मेरे कोड़े पन्नो में
शब्द बन उतर गई

कभी कभी इतिहास
गलिओं में उतर जाता हूँ मै
और विज्ञानं की तरह
दिल और तुम्हारे होने के बिच
रिस्तो पे प्रयोग करने लगता हूँ मै 

कभी कभी खामोश साम  
की तरह तुम्हे सुनना चाहता
हूँ और संगीत की तरह
समेटना चाहता हूँ 
तुम्हे अपने संग्रह में

याद का भूगोल जब तुम्हारी
मुस्कुराहट और हसीन मौसम
के बिच के दुरिओं को नापने
लगता है तो ऑंखें सावन भादो बन
बिछ जाता है तुम्हारे गलिओं में,

और याद आता है तुम्हारे
गलिओं से गुजरना,
जब भी गुजरा तुम्हारे गलिओं
से मेरे धधकन ने आवाज़ लगाये,
न जाने तुम कैसे सुन लेती
थी धडकनों को और
आ जाती थी खिड़की पे ..

तुम्हारे साथ होना एक नशा था
शायद प्रकृति भी उस 
नशे बहक जाता होगा ...
तुम्हारी हाथो से जमीन पे खिंची
लकीरे आज भी मेरे दिल में
शिलालेख की तरह अंकित है...

तुम्हे बोलना बहुत अच्छा लगता था
और मेरा भी जिद्द था सुनने का...
सुनने की जिद में सायद बहुत
कुछ रह गया कहने को...
आज जब यथार्त के ठोकरों से
जब अतीत के चप्पल घिसने लगे है
तब थके हुए काया में ग़ज़ल बनके
उतरने लगती हो तुम..

बहुत अच्छा लगता है घास को
बिछौना और यादो को तकिया बनाके
एक हद तक तुम्हे सुनना
और जागते हुए में कभी कभी सो जाना
तुमारी यादो की गोद में...

(शंकर शाह)